मैं यायावर हूं
मैं यायावर हूॅ
मैं यायावर हूॅ
इस कल्लोलपूर्ण प्रकृति के
नूतन रूमानी कैनवस का
और स्नेहस्कित रमणीयता का
जो बिखर रही है धरा पर
मैं यहाॅ अजनबी हूॅ
मगर मेरी कल्पना का अधिनायक
नया नहीं है
दूर तक फैले धूसर क्षितिज तक
आत्यन्तिक निस्तब्धता फैली है
हरे सन्नाटे का यह कौमार्य
फूट पङा है वसुधा पर
नयी नवीन पगडंडी
किनारों की परिधि पर
अनुरंजित है स्तबकों से
असीम सुकुमारता लपेटे हुए
बलखाती बेलें हैं
यौवन की लालिमा से
दहकता पलाश और
सुदूर हिंडोले पर लटकते
झूलते कदम्ब
कल्लोलित करते हैं
भाॅति भाॅति का चित्र
फलक पर उभर आया है
जैसे नभ से इंद्रधनुष
क्षितिज पर उतर आया है
धरा का यह प्रशस्त रूप देख
मैं शून्यावस्था में हूॅ
यह सप्तरंग अनोखी छटा
निमग्न हो गयी प्राणतत्व में
तिनकों तिनकों पर बूॅद
स्फटिक सी बिखरी है
क्षितिज के हरे ऑचल में
जो नग समान दिखती है
तालों में जलज की आभा
स्वतःसिद्ध है
चहुॅओर प्रकृति शांति में
समाधिस्थ है
अनायास पूरब की पवन से
क्षितिज का कौमार्य टूटा है
रवहीनता और निस्तब्धता में
भावन स्वर फूटा है
मेरी चेतना का अधिनायक
शून्यता से उभर गया
फिर याद आया
मैं यायावर हूॅ
अहंता की प्रवृत्ति में लीन
मैं चल पङा हूॅ
गंतव्य पाने को
एकदम हतभाग्य और उदास
छला सा , ठगा सा
मन में अवज्ञा है
चल पङे कदमों की
मन में बाधा है
गतिशीलता की
मगर चिर स्थिर है
कि मुझे अन्यत्र जाना है
क्योंकि मैं अजनबी हूॅ
Khatarnaak..
Grt one
Adbhut????
Bhai aati sundar
Bahut khoob
Srahniy h
Great
Great! Work!!????
Nice poem…..