मजार के कफ़न

कफ़नों के बाजार
देखते ही कट गये
जीवन के दिन चार
कुछ तमन्ना थी बची
कुछ शिकायत भी रही
कुछ मंजिल थीं अजनबी
कुछ इनायत भी रही
फूल खिल कर झर गये
स्वप्न बन बिखर गये
बसंत के स्वर्णिम नजारे
किस ओर किधर गये
देह के इस बरगद पर
न आयी फिर से बहार
मजार के कफ़न
कफ़नों के बाजार
देखते ही कट गये
जीवन के दिन चार
कदमों में दुर्धर गति नहीं
कंधों पर बोझिल आशायें
काल कपोलित सांस बनी
जीवन की भारी बाधायें
फिर भी घुट घुट जीने का
कटुक गरल को पीने का
सांसों के रण में जूझ जूझ
फटे पैरहन सीने का
हारे थके पङे मन पर
चढ़ता रहा खुमार
मजार के कफ़न
कफ़नों के बाजार
देखते ही कट गये
जीवन के दिन चार
Gajab
Thanks
Maasallah.Beyhad khoobsurat.
Wow…great words
Gajab
Super poem
Bahut sundar kavita….